घर 4 दीवारी से नहीं 4 जनों से बनता हैपरिवार उनके प्रेम और तालमेल से बनता है सभी कार्यों को जोड़ कर साधना, सफल गृहणी का काम है नौकरीवाली से पैसा बनेगा/घर नहीं प्रभाव और दुर्भाव में, आधुनिक/पारिवारिक तालमेल से उत्तम घर परिवार से देश आगे बड़े रसोई, बच्चों-परिवार की देख भाल, गृह सज्जा के बीच अपने लिए भी ध्यान देती शिक्षित नारी-(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/ निशुल्क सदस्यता व yugdarpan पर इमेल/चैटकरें, संपर्कसूत्र- तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611, 9999777358.

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Monday, November 19, 2012

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई:

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई: (जन्म:19 नवंबर, 1835 - मृत्यु:17 अथवा 18 जून, 1858) 

मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थीं। बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अप
ने रक्त से देश प्रेम की अमिट गाथाएं लिखीं। यहाँ की ललनाएं भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं, उन्हीं में से एक का नाम है- झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई। उन्होंने न केवल भारत की बल्कि विश्व की महिलाओं को गौरवान्वित किया। उनका जीवन स्वयं में वीरोचित गुणों से भरपूर, अमर देशभक्ति और बलिदान की एक अनुपम गाथा है।

रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और भारत की स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम वनिता थीं। भारत को दासता से मुक्त करने के लिए सन् 1857 में बहुत बड़ा प्रयास हुआ। यह प्रयास इतिहास में भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम या सिपाही स्वतंत्रता संग्राम कहलाता है।
अंग्रेज़ों के विरुद्ध रणयज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने वाले योद्धाओं में वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का नाम सर्वोपरी माना जाता है। 1857 में उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सूत्रपात किया था। अपने शौर्य से उन्होंने अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिए थे।
अंग्रेज़ों की शक्ति का सामना करने के लिए उन्होंने नये सिरे से सेना का संगठन किया और सुदृढ़ मोर्चाबंदी करके अपने सैन्य कौशल का परिचय दिया था।
जीवन परिचय
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1835 को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम 'मोरोपंत तांबे' और माता का नाम 'भागीरथी बाई' था। इनका बचपन का नाम 'मणिकर्णिका' रखा गया, परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी, कि उसकी माँ का देहान्त हो गया। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे। माता भागीरथी बाई सुशील, चतुर और रूपवती महिला थीं। अपनी माँ की मृत्यु हो जाने पर वह पिता के साथ बिठूर आ गई थीं। यहीं पर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ सीखीं। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था, इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे। जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से 'छबीली' बुलाने थे।
शिक्षा
पेशवा बाजीराव के बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक आते थे। मनु भी उन्हीं बच्चों के साथ पढ़ने लगी। सात वर्ष की वय में ही लक्ष्मीबाई ने घुड़सवारी सीखी। साथ ही तलवार चलाने में, धनुर्विद्या में निष्णात हुई। बालकों से भी अधिक सामर्थ्य दिखाया। बचपन में लक्ष्मीबाई ने अपने पिता से कुछ पौराणिक वीरगाथाएँ सुनीं। वीरों के लक्षणों व उदात्त गुणों को उसने अपने हृदय में संजोया। इस प्रकार मनु अल्पवय में ही अस्त्र-शस्त्र चलाने में पारंगत हो गई। अस्त्र-शस्त्र चलाना एवं घुड़सवारी करना मनु के प्रिय खेल थे।
विवाह
समय बीता, मनु विवाह योग्य हो गयी। इनका विवाह सन् 1842 में झाँसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ बड़े ही धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। इस प्रकार काशी की कन्या मनु, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गई। 1851 में उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। किन्तु 1853 तक उनके पुत्र एवं पति दोनों का देहावसान हो गया। रानी ने अब एक दत्तक पुत्र लेकर राजकाज देखने का निश्चय किया, किन्तु कम्पनी शासन उनका राज्य छीन लेना चाहता था। रानी ने जितने दिन भी शासन किया। वे अत्यधिक सूझबूझ के साथ प्रजा के लिए कल्याण कार्य करती रही। इसलिए वे अपनी प्रजा की स्नेहभाजन बन गईं थीं। रानी बनकर लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था। स्वच्छन्द विचारों वाली रानी को यह रास नहीं आया। उन्होंने क़िले के अन्दर ही एक व्यायामशाला बनवाई और शस्त्रादि चलाने तथा घुड़सवारी हेतु आवश्यक प्रबन्ध किए। उन्होंने स्त्रियों की एक सेना भी तैयार की। राजा गंगाधर राव अपनी पत्नी की योग्यता से बहुत प्रसन्न थे।
विपत्तियाँ
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा, इस्कॉन मन्दिर, बंगलोर
सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। सम्पूर्ण झाँसी आनन्दित हो उठा एवं उत्सव मनाया गया, किन्तु यह आनन्द अल्पकालिक ही था। कुछ ही महीने बाद बालक गम्भीर रूप से बीमार हुआ और चार माह की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। झाँसी शोक के सागर में डूब गई। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ने पर दरबारियों ने उन्हें पुत्र गोद लेने की सलाह दी। अपने ही परिवार के पांच वर्ष के एक बालक को उन्होंने गोद लिया और उसे अपना दत्तक पुत्र बनाया। इस बालक का नाम दामोदर राव रखा गया। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की दूसरे ही दिन 21 नवंबर 1853 में मृत्यु हो गयी।
दयालु स्वभाव
रानी अत्यन्त दयालु भी थीं। एक दिन जब कुलदेवी महालक्ष्मी की पूजा करके लौट रही थीं, कुछ निर्धन लोगों ने उन्हें घेर लिया। उन्हें देखकर महारानी का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने नगर में घोषणा करवा दी, कि एक निश्चित दिन ग़रीबों में वस्त्रादि का वितरण कराया जाए।
झाँसी का युद्ध
उस समय भारत के बड़े भू-भाग पर अंग्रेज़ों का शासन था। वे झाँसी को अपने अधीन करना चाहते थे। उन्हें यह एक उपयुक्त अवसर लगा। उन्हें लगा रानी लक्ष्मीबाई स्त्री है और हमारा प्रतिरोध नहीं करेगी। उन्होंने रानी के दत्तक-पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और रानी को पत्र लिख भेजा, कि चूँकि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसीलिए झाँसी पर अब अंग्रेज़ों का अधिकार होगा। रानी यह सुनकर क्रोध से भर उठीं एवं घोषणा की, कि मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी। अंग्रेज़ तिलमिला उठे। परिणाम स्वरूप अंग्रेज़ों ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने भी युद्ध की पूरी तैयारी की। क़िले की प्राचीर पर तोपें रखवायीं। रानी ने अपने महल के सोने एवं चाँदी के सामान तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया।
रानी के क़िले की प्राचीर पर जो तोपें थीं, उनमें कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं नालदार तोपें प्रमुख थीं। रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे, गौस खाँ तथा ख़ुदा बक्श। रानी ने क़िले की मज़बूत क़िलाबन्दी की। रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज़ सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया। अंग्रेज़ों ने क़िले को घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया।
अंग्रेज़ों की कूटनीति
अंग्रेज़ आठ दिनों तक क़िले पर गोले बरसाते रहे, परन्तु क़िला न जीत सके। रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी, कि अन्तिम सांस तक क़िले की रक्षा करेंगे। अंग्रेज़ सेनापति ह्यूराज ने अनुभव किया, कि सैन्य-बल से क़िला जीतना सम्भव नहीं है। अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया, जिसने क़िले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना क़िले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया। घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रूप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं। झाँसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े। जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूँज उठी। किन्तु झाँसी की सेना अंग्रेज़ों की तुलना में छोटी थी। रानी अंग्रेज़ों से घिर गयीं। कुछ विश्वासपात्रों की सलाह पर रानी कालपी की ओर बढ़ चलीं। दुर्भाग्य से एक गोली रानी के पैर में लगी और उनकी गति कुछ धीमी हुई। अंग्रेज़ सैनिक उनके समीप आ गए।
मृत्यु

Photo: झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई: (जन्म:19 नवंबर, 1835 - मृत्यु:17 अथवा 18 जून, 1858) 
मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वीरांगना थीं। बलिदानों की धरती भारत में ऐसे-ऐसे वीरों ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने रक्त से देश प्रेम की अमिट गाथाएं लिखीं। यहाँ की ललनाएं भी इस कार्य में कभी किसी से पीछे नहीं रहीं, उन्हीं में से एक का नाम है- झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई। उन्होंने न केवल भारत की बल्कि विश्व की महिलाओं को गौरवान्वित किया। उनका जीवन स्वयं में वीरोचित गुणों से भरपूर, अमर देशभक्ति और बलिदान की एक अनुपम गाथा है।
रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और भारत की स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम वनिता थीं। भारत को दासता से मुक्त करने के लिए सन् 1857 में बहुत बड़ा प्रयास हुआ। यह प्रयास इतिहास में भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम या सिपाही स्वतंत्रता संग्राम कहलाता है।
अंग्रेज़ों के विरुद्ध रणयज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देने वाले योद्धाओं में वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई का नाम सर्वोपरी माना जाता है। 1857 में उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सूत्रपात किया था। अपने शौर्य से उन्होंने अंग्रेज़ों के दाँत खट्टे कर दिए थे।
अंग्रेज़ों की शक्ति का सामना करने के लिए उन्होंने नये सिरे से सेना का संगठन किया और सुदृढ़ मोर्चाबंदी करके अपने सैन्य कौशल का परिचय दिया था।

जीवन परिचय
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1835 को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम 'मोरोपंत तांबे' और माता का नाम 'भागीरथी बाई' था। इनका बचपन का नाम 'मणिकर्णिका' रखा गया, परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी, कि उसकी माँ का देहान्त हो गया। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे। माता भागीरथी बाई सुशील, चतुर और रूपवती महिला थीं। अपनी माँ की मृत्यु हो जाने पर वह पिता के साथ बिठूर आ गई थीं। यहीं पर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ सीखीं। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था, इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे। जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से 'छबीली' बुलाने थे।

शिक्षा
पेशवा बाजीराव के बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक आते थे। मनु भी उन्हीं बच्चों के साथ पढ़ने लगी। सात वर्ष की वय में ही लक्ष्मीबाई ने घुड़सवारी सीखी। साथ ही तलवार चलाने में, धनुर्विद्या में निष्णात हुई। बालकों से भी अधिक सामर्थ्य दिखाया। बचपन में लक्ष्मीबाई ने अपने पिता से कुछ पौराणिक वीरगाथाएँ सुनीं। वीरों के लक्षणों व उदात्त गुणों को उसने अपने हृदय में संजोया। इस प्रकार मनु अल्पवय में ही अस्त्र-शस्त्र चलाने में पारंगत हो गई। अस्त्र-शस्त्र चलाना एवं घुड़सवारी करना मनु के प्रिय खेल थे।

विवाह
समय बीता, मनु विवाह योग्य हो गयी। इनका विवाह सन् 1842 में झाँसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ बड़े ही धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। इस प्रकार काशी की कन्या मनु, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गई। 1851 में उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। किन्तु 1853 तक उनके पुत्र एवं पति दोनों का देहावसान हो गया। रानी ने अब एक दत्तक पुत्र लेकर राजकाज देखने का निश्चय किया, किन्तु कम्पनी शासन उनका राज्य छीन लेना चाहता था। रानी ने जितने दिन भी शासन किया। वे अत्यधिक सूझबूझ के साथ प्रजा के लिए कल्याण कार्य करती रही। इसलिए वे अपनी प्रजा की स्नेहभाजन बन गईं थीं। रानी बनकर लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था। स्वच्छन्द विचारों वाली रानी को यह रास नहीं आया। उन्होंने क़िले के अन्दर ही एक व्यायामशाला बनवाई और शस्त्रादि चलाने तथा घुड़सवारी हेतु आवश्यक प्रबन्ध किए। उन्होंने स्त्रियों की एक सेना भी तैयार की। राजा गंगाधर राव अपनी पत्नी की योग्यता से बहुत प्रसन्न थे।

विपत्तियाँ
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा, इस्कॉन मन्दिर, बंगलोर
सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। सम्पूर्ण झाँसी आनन्दित हो उठा एवं उत्सव मनाया गया, किन्तु यह आनन्द अल्पकालिक ही था। कुछ ही महीने बाद बालक गम्भीर रूप से बीमार हुआ और चार माह की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। झाँसी शोक के सागर में डूब गई। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ने पर दरबारियों ने उन्हें पुत्र गोद लेने की सलाह दी। अपने ही परिवार के पांच वर्ष के एक बालक को उन्होंने गोद लिया और उसे अपना दत्तक पुत्र बनाया। इस बालक का नाम दामोदर राव रखा गया। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की दूसरे ही दिन 21 नवंबर 1853 में मृत्यु हो गयी।

दयालु स्वभाव
रानी अत्यन्त दयालु भी थीं। एक दिन जब कुलदेवी महालक्ष्मी की पूजा करके लौट रही थीं, कुछ निर्धन लोगों ने उन्हें घेर लिया। उन्हें देखकर महारानी का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने नगर में घोषणा करवा दी, कि एक निश्चित दिन ग़रीबों में वस्त्रादि का वितरण कराया जाए।

झाँसी का युद्ध
उस समय भारत के बड़े भू-भाग पर अंग्रेज़ों का शासन था। वे झाँसी को अपने अधीन करना चाहते थे। उन्हें यह एक उपयुक्त अवसर लगा। उन्हें लगा रानी लक्ष्मीबाई स्त्री है और हमारा प्रतिरोध नहीं करेगी। उन्होंने रानी के दत्तक-पुत्र को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और रानी को पत्र लिख भेजा, कि चूँकि राजा का कोई पुत्र नहीं है, इसीलिए झाँसी पर अब अंग्रेज़ों का अधिकार होगा। रानी यह सुनकर क्रोध से भर उठीं एवं घोषणा की, कि मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी। अंग्रेज़ तिलमिला उठे। परिणाम स्वरूप अंग्रेज़ों ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने भी युद्ध की पूरी तैयारी की। क़िले की प्राचीर पर तोपें रखवायीं। रानी ने अपने महल के सोने एवं चाँदी के सामान तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया।
रानी के क़िले की प्राचीर पर जो तोपें थीं, उनमें कड़क बिजली, भवानी शंकर, घनगर्जन एवं नालदार तोपें प्रमुख थीं। रानी के कुशल एवं विश्वसनीय तोपची थे, गौस खाँ तथा ख़ुदा बक्श। रानी ने क़िले की मज़बूत क़िलाबन्दी की। रानी के कौशल को देखकर अंग्रेज़ सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया। अंग्रेज़ों ने क़िले को घेर कर चारों ओर से आक्रमण किया।

अंग्रेज़ों की कूटनीति
अंग्रेज़ आठ दिनों तक क़िले पर गोले बरसाते रहे, परन्तु क़िला न जीत सके। रानी एवं उनकी प्रजा ने प्रतिज्ञा कर ली थी, कि अन्तिम सांस तक क़िले की रक्षा करेंगे। अंग्रेज़ सेनापति ह्यूराज ने अनुभव किया, कि सैन्य-बल से क़िला जीतना सम्भव नहीं है। अत: उसने कूटनीति का प्रयोग किया और झाँसी के ही एक विश्वासघाती सरदार दूल्हा सिंह को मिला लिया, जिसने क़िले का दक्षिणी द्वार खोल दिया। फिरंगी सेना क़िले में घुस गई और लूटपाट तथा हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया। घोड़े पर सवार, दाहिने हाथ में नंगी तलवार लिए, पीठ पर पुत्र को बाँधे हुए रानी ने रणचण्डी का रूप धारण कर लिया और शत्रु दल संहार करने लगीं। झाँसी के वीर सैनिक भी शत्रुओं पर टूट पड़े। जय भवानी और हर-हर महादेव के उद्घोष से रणभूमि गूँज उठी। किन्तु झाँसी की सेना अंग्रेज़ों की तुलना में छोटी थी। रानी अंग्रेज़ों से घिर गयीं। कुछ विश्वासपात्रों की सलाह पर रानी कालपी की ओर बढ़ चलीं। दुर्भाग्य से एक गोली रानी के पैर में लगी और उनकी गति कुछ धीमी हुई। अंग्रेज़ सैनिक उनके समीप आ गए।
मृत्यु

रानी को असहनीय वेदना हो रही थी, परन्तु मुखमण्डल दिव्य कान्त से चमक रहा था। उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर वे तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बन्द हो गए। वह 18 जून 1858 का दिन था, जब क्रान्ति की यह ज्योति अमर हो गयी। उसी कुटिया में उनकी चिता लगायी गई, जिसे उनके पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्नि दी। रानी का पार्थिव शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो गया और वे सदा के लिए अमर हो गयीं। इनकी मृत्यु ग्वालियर में हुई थी। विद्रोही सिपाहियों के सैनिक नेताओं में रानी सबसे श्रेष्ठ और बहादुर थी और उसकी मृत्यु से मध्य भारत में विद्रोह की रीढ़ टूट गई।
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। -सुभद्रा कुमारी चौहान


रानी को असहनीय वेदना हो रही थी, परन्तु मुखमण्डल दिव्य कान्त से चमक रहा था। उन्होंने एक बार अपने पुत्र को देखा और फिर वे तेजस्वी नेत्र सदा के लिए बन्द हो गए। वह 18 जून 1858 का दिन था, जब क्रान्ति की यह ज्योति अमर हो गयी। उसी कुटिया में उनकी चिता लगायी गई, जिसे उनके पुत्र दामोदर राव ने मुखाग्नि दी। रानी का पार्थिव शरीर पंचमहाभूतों में विलीन हो गया और वे सदा के लिए अमर हो गयीं। इनकी मृत्यु ग्वालियर में हुई थी। विद्रोही सिपाहियों के सैनिक नेताओं में रानी सबसे श्रेष्ठ और बहादुर थी और उसकी मृत्यु से मध्य भारत में विद्रोह की रीढ़ टूट गई।
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। -सुभद्रा कुमारी चौहान
यह राष्ट्र जो कभी विश्वगुरु था, आज भी इसमें वह गुण, योग्यता व क्षमता विद्यमान है | आओ मिलकर इसे बनायें; - तिलक
घर 4 दीवारी से नहीं 4 जनों से बनता है, परिवार उनके प्रेम और तालमेल से बनता है | आओ मिलकर इसे बनायें; - तिलक

Monday, January 17, 2011

श्री राम ने शम्बूक का वध नहीं किया था और न सीताजी को वनवास दिया था-----------------------------विश्व मोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (से. नि.)

घर 4 दीवारी से नहीं 4 जनों से बनता है,परिवार उनके प्रेम और तालमेल से बनता है! आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक


उत्तर काण्ड पर प्रश्न चिऩ्ह

श्री राम ने शम्बूक का वध नहीं किया था और न सीताजी को वनवास दिया था



मैं ही क्या, हम सब चोरों की भर्त्सना ही करते हैं, किन्तु उनके चौर्यकौशल की प्रशंसा करना ही पड़ती है। हम सब पूरी सावधानी से रहना चाहते हैं और पूरे प्रयत्न करते हैं कि चोरी‌ न हो, पुलिस भी इसमें‌ हमारी थो.डी बहुत मदद करती है। किन्तु चोरियां होती हैं, वैसे आज सीना जोरी वाली चोरी ख़ुले आम भी हो रही‌ हैं। चोरियां अनेक प्रकार की होती हैं। मेरा इस समय लक्ष्य लेखन की चोरी पर है। आजकल साहित्यिक चोरी के विरुद्ध यूएसए आदि में कठोर नियम हैं; यह तो प्रशंसनीय है।
साहित्यिक चोरी का एक और सभ्य प्रकार है - किसी अन्य के लेख को लेकर चुपके से उसमें अपनी‌ बात डाल देना और उसी के नाम से प्रकाशित करना। आजकल यह मुद्रित माध्यम के कारण कुछ कठिन हो गया है; किन्तु जब हाथ से ही लिखकर प्रतियां बँटती थीं, तब इस तरह के प्रक्षेप करना अपेक्षाकृत सरल था, और भी विशेषकर कि जब मूल लेखक का निधन हो गया हो। इसका ध्येय अपनी सोच या विश्वासों का परोक्ष प्रचार करना तो होता ही है कितु अधिकांशतया अन्य विचार या विश्वास का हनन या क्षरण करना भी प्रमुख हो सकता है। रामायण और महाभारत दोनों अत्यंत महत्वपूर्ण महाकाव्य प्रक्षेपों से भरे पड़े हैं। अन्य के विश्वास या मान्यताओं को प्रत्यक्षत: गलत न कहते हुए इशारे से या झूठे दृष्टान्तों से यह कार्य किया जाता है और इस चौर्य कौशल की भी प्रशंसा करते ही बनती है क्योंकि पाठक सन्देह करते हुए भी प्रक्षेपित झूठे विश्वासों को सही सिद्ध करने में लग जाता है। जैसे राम ने सीता को वन में लोकनिन्दा के भय से त्यागा था इस पर पहले तो विश्वास नहीं होता किन्तु हम सब इसे येन केन प्रकारेण सत्य सिद्ध करने में लग जाते हैं।
पुरुषोत्तम श्री राम के आदर्श को गिराने के लिये एक झूठी आदर्शात्मक घटना को प्रस्तुत कर उसी श्रद्धाप्राप्त ग्रन्थ रामायण में इतनी कुशलता से जो.ड देना कि पाठक को संदेह भी न हो और राम के पुरुषोत्तमत्व पर भी धब्बा लग जाए – सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे - यही तो प्रक्षेप करने वले शत्रु -चोरों का कौशल है। वैसे तो वाल्मीकि रामायण में अनेक प्रक्षेप हैं, इस समय मैं दो ही प्रक्षेपों की चर्चा करूंगा। १. श्री राम ने लोकनिंदा के भय से सीता जी को, वह भी जब वे गर्भवती थीं, वन में भेज दिया था। २. श्री राम ने दक्षिण दिशा के वासी एक शूद्र व्यक्ति शम्बूक का वध इसलिये किया था कि वह तपस्या कर रहा था !
हम लोगों का लिखे शब्द पर इतना अधिक विश्वास हो गया है कि जब हम उसे पढ़ते हैं तो उसे न केवल मान लेते हैं वरन उसके सिद्ध करने के लिये तर्कों का आविष्कार भी करने लग जाते हैं। और उस शत्रु -चोर लेखक का कौशल भी इसमें सहायता करता है। अपनी बातों को विश्वसनीय बनाने के लिये वह घटनाओं को विश्वसनीय बनाता है। उदाहरण के लिये उत्तरकाण्ड में ब्राह्मणों को दान देने की महिमा और प्रशंसा कर उसे विश्वसनीय बना दिया। मूल रामायण में दान की महिमा या तो अपवाद रूप में या प्रक्षेप में ही आई है। दान की प्रशंसा लिखने से ब्राह्मणों द्वारा प्रक्षेपों का विरोध न करने की संभावना बढ़ जाती है। विश्वामित्र जी जब राजा दशरथ के पास सहायता के लिये जाते हैं तब उनसे दान की‌ बात ही नहीं की जाती, वरन राक्षसों से रक्षा की बात की‌ जाती है। बहुत से विद्वान श्री राम के शम्बूक वध तथा सीताजी के वनवास की घटनाओं को सिद्ध करने के लिये तरह तरह के तर्क दे रहे हैं। जब यह दोनों घटनाएं श्रीराम के सम्पूर्ण चरित्र तथा कार्यों के साथ तनिक भी‌ मेल नहीं खाती और न महर्षि वाल्मीकि के उद्देश्यों से मेल खाती हैं, तब भी हम क्यों उन पर विश्वास कर लेते हैं और तर्कों द्वारा सिद्ध करते रहते हैं, यह एक आश्चर्य की बात तो है, यह दर्शाती‌ है कि हमारी सोच अवैज्ञानिक होती‌ जा रही है।
वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड का समापन पढ़ने से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि रामायण वहीं पर समाप्त हो जाती है। वहां अन्त में लिखा है कि राज्याभिषेक के पश्चात श्री राम ने ११,००० वर्ष राज्य किया। अभी हम इस विवाद में‌ न पड़ें कि वे ११००० वर्ष राज्य कैसे कर सकते थे । कवि द्वारा इसे उसकी अतिशयोक्ति मानकर इतना ही समझें कि उऩ्होंने दीर्घकाल तक राज्य किया, क्योंकि शब्द 'हजारों' का आधिक्य दर्शाने के लिये उपयोग बहुत प्रचलित था और है। फ़िर रामायण परायण की फ़लश्रुति आ जाती है कि - 'जो भी इस रामायण का पाठ करेगा या श्रवण करेगा उसे बहुत पुण्य मिलेगा' इत्यादि। अब इसके बाद उत्तरकाण्ड के लिखे जाने की‌ बात ही नहीं‌ बनती।
उत्तरकाण्ड में जो वर्णन है वह वीभत्स या जादू या चमत्कारों के वर्णन के कारण अत्यंत रुचिकर होते हुए भी नितान्त अविश्वसनीय है। स्वयं लक्ष्मण उसे सुनकर बार बार यही कहते हैं कि यह तो अत्यंत अद्भुत है। पहले तो उसमें रावण ही नहीं‌ वरन समस्त राक्षस जाति का इतिहास है। जब मूल रामायण मुख्यत: राजा दशरथ के जीवन से ही प्रारंभ होती‌ है न कि इक्ष्वाकु वंश या ककुत्स्थ से, और रावण के जीवन का मूल रामायण में पर्याप्त वर्णन है तब राक्षसों के पूरे इतिहास के वर्णन का रामायण में औचित्य ही नहीं‌ बनता। वह तो किसी बाक्स आफ़िस हिट फ़िल्म के 'सीक्वैल' की तरह उनके विषय में अतार्किक और जादुई घटनाओं का वर्णन कर पाठकों को आकर्षित करना ही उन प्रक्षेपकारों का पहला ध्येय था, जिसमें वे सफ़ल हुए। प्रमुख ध्येय था राम के मर्यादत्व पर चोट करना। इसके लिये उऩ्होंने दो संवेदनशील विषय चुने - अबला और चरित्रवान स्त्री‌ पर और निर्दोष शूद्र पर अत्याचार, वह भी स्वयं राजा राम के द्वारा।
अबला स्त्री पर अत्याचार की आधारभूमि तो संस्कृत के प्रसिद्ध साहित्यकार भवभूति ने पहले ही तैयार कर दी थी। महावीर जैन पर एक ग्रन्थ लिखने के बाद भवभूति ने अद्भुत कल्पना का दुरुपयोग करते हुए 'उत्तर रामचरित' नाटक लिखा। अपने आक्रमण को विश्वसनीय बनाने के लिये एक रससिक्त स्वतंत्र रचना भी की जाती है। भवभूति का उत्तररामचरित ऐसा ही ग्रन्थ है। इसका सिद्धान्तन तो विरोध हो ही नहीं सकता क्योंकि यह तो साहित्यकार का जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह रचना करने के लिये स्वतंत्र है। किन्तु हमें उसके कुप्रचारात्मक दृष्टिकोण से सावधान तो रहना ही चाहिये। इस नाटक में करुणरस के सिद्ध कवि भवभूति ने सीता जी को इतनी करुणाजनक स्थिति में दर्शाया है कि पाठक आँसू‌ बहा बहाकर उनकी प्रशंसा करे । इसके लिये उऩ्होंने राम के द्वारा सीता को वन में निष्कासित किया क्योंकि जनता उन पर लांछन लगा रही थी। राम को भी एक तरह से लोक का सम्मान करने वाला राजा घोषित कर दिया, तथा इस तरह सबसे बड़ा त्याग करने वाला भी। प्रत्यक्षरूप से उऩ्होंने राम की बुराई नहीं की, और परोक्षरूप से उऩ्हें मूर्ख और स्त्री का अपमान करने वाला भी सिद्ध कर दिया।
जब कोई राजा जो अपने न्याय के लिये प्रसिद्ध हो और वह एक ऐसा न्याय कर दे जो नितान्त अन्याय हो तब उस राजा को भी कोई मूर्ख के अतिरिक्त क्या मानेगा ! न्याय करने के लिये सर्वप्रथम आवश्यकता इस बात की है कि दोनों पक्षों को सुना जाए। इस राजा ने तो एक भी पक्ष को नहीं सुना। एक पक्ष को विश्वसनीय सूत्रों से सुनने को न्यायालय के नियमों के अनुसार सुनना नहीं माना जा सकता। किन्तु यह न्यायिक पद्धति तो नहीं कि आरोपी को न केवल आरोप लगाने वाले से प्रश्न न करने का अवसर दिया जाए वरन उसे सुना ही न जाए । प्रश्न करने पर वह आरोपकर्ता ही अपनी गलती स्वीकार कर सकता था कि वह आरोप लगाते समय गंभीर नहीं था। खैर, यह न भी‌ होता तब भी आरोपी को उसका अधिकार तो मिलना ही चाहिये था। दूसरी बात कि जब राम ने अग्नि परीक्षा करवा ही ली थी और जिसका घोषित उद्देश्य यही था कि जनता सीता के निर्दोष होने पर संदेह ही न करे, और अग्निदेव ने सीता जी को पूर्ण रूप से निर्दोष सिद्ध किया था। अग्निपरीक्षा सरीखी अनोखी और मर्मान्तक घटना का प्रचार तो स्वयं ही हो गया होगा, अन्यथा राम इस सत्य का प्रचार तो करवा ही सकते थे क्योंकि उनके पास एक से एक विश्वसनीय साक्षी थे । जब असत्य जनसमाज मैं फ़ैला हो तब सत्य का प्रचार करना भी राज्य का कर्तव्य होता है, न कि अफ़वाहों से डरकर अन्याय करना ! जब राजा को अथवा न्यायाधीश को मालूम हो कि 'सुप्रीम कोर्ट' (अग्नि परीक्षा) ने एक निर्णय दे दिया है तब छोटे न्यायालय के लिये उसको मान्यता देना अनिवार्य होता है, अन्यथा वह सर्वोच्च न्यायालय की मानहानि का कारण बन जाता है। और य्दि सीता को लोकनिंदा के भय से त्यागा था तब ऐसा त्याग करने के बाद जनता में उसकी घोषणा करवाना भी तो अवश्यक होता है ताकि जनता उससे कुछ सीखे। ऐसा भी राम ने नहीं किया। यह सब आवश्यक कार्य न करने वाला न्यायाधीश राम तो 'अयोग्य' ही सिद्ध होता है - यही भवभूति का उद्देश्य था जिसमें उऩ्हें आशातीत सफ़लता मिली। और राम के शत्रुओं ने इसे एक नया काण्ड बनाकर उसमें‌ डाल दिया।
चतुर शत्रु तो वह है जो आपका ही आयुध लेकर आपको ही‌ मारे। कुछ ब्राह्मणों के अहंकार की कमजोरी का लाभ उठाकर ऐसा प्रकरण डाल दे कि जो प्रत्यक्ष रूप से तो ब्राह्मणों के पक्ष में दिखे और परोक्ष रूप से राम की‌ मर्यादा पर चोट करे । एक ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु हो जाती है और वह ब्राह्मण अहंकारपूर्ण शब्दों में राजा श्री राम को उसके लिये दोषी ठहराता है क्योंकि उसके राज्य में कोई शूद्र तपस्या कर रहा है। वह राजा से कहता है कि राजा दोषी को ढूँढ़े और दण्ड दे।
वह घटना तो निश्चित ही वाल्मीकि के काल की नहीं हो सकती क्योंकि स्वयं वाल्मीकि के विषय में‌ यह जाना जाता है कि वे ऋषि बनने के पूर्व एक डाकू थे । वैसे भी, अनेक उपनिषद तब तक लिखे जा चुके थे । उपनिषदों में तो न केवल शूद्रों ने तपस्या की है वरन उनमें से कुछ तो ऋषि की‌ गरिमा को प्राप्त हुए हैं - यथा ऐतरेय, सत्यकाम आदि। उपनिषदों की सारी शिक्षा मात्र मानव के लिये है, किसी धर्म, या जाति या रंग के लिये नहीं, औपनिषदिक ऋषि तो सब प्राणियों में एकत्व ही देखता है। और श्री राम तथा उनके भाइयों‌ ने गुरु वसिष्ठ से उपनिषदों सहित समस्त वेदों की उत्तम शिक्षा प्राप्त की थी। समस्त रामायण में श्रीराम के समस्त कार्यों में‌ यही मानव की एकता देखी‌ जा सकती है, वे तो मनुष्य के गुणकर्म देखकर ही यथायोग्य व्यवहार करते हैं। अत: श्री राम को तो एक शूद्र द्वारा तपस्या करने पर प्रसन्न होना था, न कि उसकी ह्त्या करना था। वैसे भी यह तो वही श्री राम हैं जो कि एक भीलनी शबरी से मात्र मिलने के लिये अपने रास्ते से हटकर जाते हैं, उस शबरी के पास कि जिससे मिलने के लिये सूचना एक राक्षस कबन्ध देता है। वही श्री राम जो निषादराज केवट को गले लगाते हैं, उसे प्रिय मित्र कहते हैं, जब कि नदी पार करने के बाद वे उसे पारिश्रमिक तथा धन्यवाद देकर महान ऋषियों से मिलने आगे जा सकते थे । एक इसी शम्बूक वध घटना का उद्धरण कर डाक्टर अम्बेडकर ने संसद में घोषणा की थी कि वे ऐसे हिदूधर्म का सम्मान नहीं कर सकते । काश कि किसी‌ विद्वान ने उऩ्हें वास्तविकता का परिचय कराया होता, तो आज जो अनावश्यक भेद दलितों तथा अन्य में‌ हो गया है वह न होता। उस प्रक्षेप डालने वाले शत्रु ने हिंदू धर्म पर कितन बड़ा सफ़ल प्रहार किया है; उसके कौशल की प्रशंसा और हमारे न सोचने की निंदा ही करते बनती है।
महर्षि वाल्मीकि का ध्येय तो इस संसार के उस वास्तविक मनुष्य के चरित्र पर महाकाव्य लिखना था कि जो आदर्श हो । नारद जी उऩ्हें ऐसे आदर्श व्यक्ति श्री राम का परिचय देते हैं। परिचय देते समय वे रामायण की समस्त प्रमुख घटनाओं की संक्षिप्त जानकारी‌ भी देते हैं। उसमें भी न तो सीता जी के वनवास की और न शम्बूक के वध की चर्चा तो क्या उनका नाम तक नहीं दिया है। नारद जी जो अद्भुत जानकारी रखते हैं उऩ्होंने इस अत्यंत मह्त्वपूर्ण घटना का उल्लेख ही‌नहीं किया तब यह घटना रामायण में हो ही‌ नहीं सकती और साथ ही इसलिये भी कि यह रचयिता के मूल उद्देश्य का एकदम विरोध करती‌ है, यह श्री राम की मूल मान्यताओं का, उनकी शिक्षा का, उनके अन्य समस्त कार्यों के विरोध में है। यह एक बड़ी चूक उन राम के शत्रु साहित्यिक चोरों से हो गई कि वे नारद जी के वर्णन में प्रक्षेप डालना भूल गए । महाभारत जैसे विशाल महाकाव्य में‌ महर्षि व्यास जी ने भी रामायण की मुख्य घटनाओं का वर्णन किया है और उनमें भी इस घटना का उल्लेख नहीं है। महाभारत काल तक श्री राम का विरोध करने वाला कोई नहीं‌ हुआ था। अर्थात यह प्रक्षेप महाभारत काल के बाद, विशेषकर जब सनातन (हिन्दू) धर्म का विरोध कुछ अन्य धर्मी करने लगे थे, में ही डाला गया है। और मेरा अनुमान है कि यह प्रक्षेप भवभूति के 'उत्तर रामचरित' नाटक के बाद डाला गया है। इतनी ऊँची कल्पना करने के लिये भवभूति के समान एक विशेष योग्यता वाला व्यक्ति ही चाहिये। दृष्टव्य है कि भवभूति ने श्री महावीर ग्रन्थ भी‌ लिखा था।
स्वयं संत तुलसीदास के समान अद्भुत विद्वान तथा साहित्यकार ने भी इस शम्बूक वाली‌ क्रूर घटना को और सीता के वनवास वाली अमानवीय घटना को स्वीकार नहीं किया है। यह गीताप्रैस गोरखपुर प्रकाशित रामचरित मानस में देखा जा सकता है। रामानन्द जी के टीवी प्र्स्तुति में‌ भी इन घटनाओं को स्थान नहीं मिला है। हां कुछ अन्य प्रकाशक अज्ञानवश या अन्य कारणवश इन घटनाओं को रामचरित मानस में प्रकाशित करते हैं।
अत: इसमें सण्देह नहीं होना चाहिये कि न तो श्री राम ने शम्बूक का वध किया और न सीताजी को वन में भेजा, और यह प्रक्षेप डालने वाला दुष्कृत्य निश्चित ही श्री राम के शत्रुओं का है।

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