घर 4 दीवारी से नहीं 4 जनों से बनता हैपरिवार उनके प्रेम और तालमेल से बनता है सभी कार्यों को जोड़ कर साधना, सफल गृहणी का काम है नौकरीवाली से पैसा बनेगा/घर नहीं प्रभाव और दुर्भाव में, आधुनिक/पारिवारिक तालमेल से उत्तम घर परिवार से देश आगे बड़े रसोई, बच्चों-परिवार की देख भाल, गृह सज्जा के बीच अपने लिए भी ध्यान देती शिक्षित नारी-(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/ निशुल्क सदस्यता व yugdarpan पर इमेल/चैटकरें, संपर्कसूत्र- तिलक संपादक युगदर्पण 09911111611, 9999777358.

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Saturday, February 12, 2011

भारतीय मूल्यों की प्रसांगिकता

भारतीय मूल्यों की प्रसांगिकता 
(युग दर्पण राष्ट्रीय समाचार पत्र के अंक 16-22 फरवरी 2009 में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख, आज ब्लॉग के माध्यम पुन: प्रकाशित  )
विविधता तो भारत की विशिष्टता सदा से रही है किन्तुआज विविधता में एकता केवल एक नारा भर रह गया है!विभिन्न समुदायों में एहं व परस्पर टकराव का आधार जाति, वर्ग, लिंग,धर्म ही नहीं, पीडी की बदलती सोच मर्यादाविहीन बना विखंडन के संकेंत दे रही है! इन दिनों वेलेंतैनेडे के पक्ष विपक्ष में तथा आजादी और संस्कृति पर मोर्चे खुले हैं. वातावरण गर्मा कर गरिमा को भंग कर रहा है .
-बदलती सोच- एक पक्ष पर संस्कृति के नाम पर कानून में हाथ लेना व गुंडागर्दी का आरोप तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता के अतिक्रमण के आरोप है! दूसरे पर आरोप है अपसंस्कृति अश्लीलता व अनैतिकता फैलाने कादूसरी ओर आज फिल्म टीवी अनेक पत्र पत्रिकाओं में मजोरंजन के नाम पर कला का विकृत स्वरूप देश की युवा पीडी का ध्यान भविष्य व ज्ञानोपार्जन से भटका कर जिस विद्रूपता की ओर ले जा रहा है! पूरा परिवार एक साथ देख नहीं सकता!
   घर से पढ़ने निकले 15-25 वर्ष के युवा इस उतेजनापूर्ण मनोरंज के प्रभाव से सार्वजनिक स्थानों (पार्को) में अर्धनग्न अवस्था व आपतिजनक मुद्रा में संलिप्त दिखाई देते हैं! जिससे वहां की शुद्ध वायु पाना तो दूर (जिसके लिए पार्क बने हैं) बच्चों के साथ पार्क में जाना संभव नहीं! फिर अविवाहित माँ बनना व अवैध गर्भाधान तक सामान्य बात होती जा रही है! हमारें पहिये संविधान और समाज की धुरियों पर टिके हैं तो इन्ही के सन्दर्भ के माध्यम स्तिथि का निष्पक्ष विवेचन करने का प्रयास करते हैं!
   विगत 6 दशक से इस देश में अंग्रजो के दासत्व से मुक्ति के पश्चात् इस समाज को खड़े होने के जो अवसर पहले नहीं मिल पा रहे थे मिलने लगे, इस पर प्रगतिशीलता और विकास के आधुनिक मार्ग पर चलने का नारा समाज को ग्राह्य लगना स्वाभाविक है! किन्तु दुर्भाग्य से आधुनिकता के नाम पर पश्चिम की अंधी दौड़ व प्रगतिशीलता के नाम पर "हर उस परम्परा का" विरोध व कीचड़ उछाला जाने लगा, जिससे इस देश को उन "मूल्यों आदर्शों संस्कारों मान्यताओं व परम्पराओं से पोषण उर्जा व संबल" प्राप्त होता रहा है! जिन्हें युगों युगों से हमने पाल पोस कर संवर्धन किया व परखा है तथा संपूर्ण विश्व ने जिसके कारण हमें विश्व गुरु माना है! वसुधैव कुटुम्बकम के आधार पर जिसने विश्व को एक कल्याणकारी मार्ग दिया है! विश्व के सर्वश्रेष्ट आदर्शो मूल्यों व संस्कारों की परम्पराओं को पश्चिम की नवोदित संस्कृति के प्रदूषित हवा के झोकों से संक्रमित होने से बचाना किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं ठहराया जा सकता
सहिष्णुता नैसर्गिक गुण- क्या हमने कभी समझने का प्रयास किया कि आजादी के पश्चात् जब मुस्लिम बाहुल्य पाकिस्तान एक इस्लामिक देश बना, तो हिन्दू बाहुल्य भारत हिन्दवी गणराज्य की जगह धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त गणराज्य क्यों बना? यहाँ का बहुसंख्यक समाज स्वाभाव से सदा ही धार्मिक स्वतंत्रता व सहिष्णुता के नैसर्गिक गुणों से युक्त रहा है! धर्म के प्रति जितनी गहरी आस्था विभिन्न पंथों के प्रति उतनी अधिक सहिष्णुता का व्यवहार उतना ही अधिक निर्मल स्वभाव हमें विरासत में मिला है! विश्व कल्याण व समानता का अधिकार हमारी परम्परा का अंग रही है! उस निर्मल स्वभाव के कारण सेकुलर राज्य का जो पहाडा पडाया गया उसे स्वीकार कर लिया!
   60 वर्ष पूर्व उस पीडी के लोग जानते हैं, सामान्य भारतीय (मूल हिन्दू) स्वाभाव सदा ही निर्मल था! वे यह भी जानते हैं कि विश्व कल्याण व समानता के अधिकार दूसरो को देने में सकोच न करने वाले उस समाज को 60 वर्ष में किस प्रकार छला गया? उसका परिणाम भी स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है! हम कभी हिप्पिवाद, कभी आधुनिकता के नाम खुलेपन (अनैतिकता) के द्वार खोल देते हैं! अब स्थिति ये है कि आज ये देश मूल्यहीनता, अनैतिकता, अपसंस्कारों, अपराधों व विषमताओं सहित;अनेकों व्याधियों, समस्याओं व चुनोतियों के अनंत अंधकार में छटपटा रहा है? उस तड़प को कोई देशभक्त ही समझ सकता है! किन्तु देश की अस्मित के शत्रुओं के प्रति नम्रता का रुझान रखने वाले देश के कर्णधार इस पीढा का अनुभव करने में असमर्थ दिखते हैं!
 निष्ठा में विकार- आजादी की लड़ाई में हिन्दू मुसलिम सभी वन्दे मातरम का नारा लगाते, उससे ऊर्जा पाते थे. उसमे वे भी थे जो देश बांटकर उधर चले गए, तो फिर इधर के मुसलमान वन्देमातरम विरोधी कैसे हो सकते थे ? आजादी के पश्चात अनेक वर्षो तक रेडियो टीवी पर एक समय राष्ट्रगीत, एक समय राष्ट्रगान होता था! इस सेकुलर देश के, स्वयं को "हिन्दू बाई एक्सिडेंट" कहने वाले प्रथम प्रधानमंत्री से दूसरे व तीसरे प्रधानमंत्री तक के काल में इस देश में वन्दे मातरम किसी कोसांप्रदायिक नहीं लगा, फिर इन फतवों का कारण ?
  इस देश की मिटटी के प्रति समपर्ण फिर कैसे कुछ लोगो को सांप्रदायिक लगने लगा? वन्देमातरम हटाने की कुत्सित चालों से किसने अपने घटियापन का प्रमाण दिया? उस समय अपराधिक चुपपी लगाने वालो को, क्यों हिन्दुत्व का समर्थन करने वालों से मानवाधिकार, लोकतंत्र व सेकुलरवाद संकट में दिखाई देने लगता है? 
हिन्दुत्व के प्रति तिरस्कार, कैसा सेकुलरवाद है?  जब कोई जेहाद या अन्य किसी नाम से मानवता के प्रति गहनतम अपराध करता है, तब भी मानवाधिकार कुमभकरनी निद्रा से नहीं जागता? जब हिन्दू समाज में आस्था रखने वालों की आस्था पर प्रहार होता तब भी सता के मद में मदमस्त रहने वाले, कैसे, अनायास; हिन्दुत्व की रक्षा की आवाज सुनकर(भयभीत) तुरंत जाग जाते हैं? किन्तु उसके समर्थन में नहीं; भारतीय संस्कृति व हिन्दुत्व की आवाज उठाने वालों को खलनायक व अपराधी बताने वाले शब्द बाणों से चहुँ ओर से प्रहार शुरू कर देते हैं!
   अभी कुछ दिन पूर्व मंगलूर में पब की एक घटना पर एक पक्षिय वक्तवयो, कटाक्षों, से उन्हें कहीं हिन्दुत्व का ठेकदार, कहीं संस्कृती का ठेकदार का रूप में, फांसीवादी असहिष्णु व गुंडा जैसे शब्दों से अलंकृत किया गया! इसलिए कि उन्हें पब में युवा युवतियों का मद्यपान व अश्लील हरकतों पर आपति थी ? संभव है, इस पर दूसरे पक्ष ने (स्पष्ट:योवन व शराब की मस्ती का प्रकोप में) उतेजनापूर्ण प्रतिकार भी किया होगा? परिणामत दोनों पक्षों में हाथापाई? ताली दोनों हाथो से बजी होगी? एक को दोषी
मान व दूसरे का पक्ष लेना क्या न्यायसंगत है?    जिसअपरिपक्व आयु के बच्चों को कानून नौकरी, सम्पति, मतदान व विवाह का अधिकार नहीं देता; क्योंकि अपरिपक्व निर्णय घातक हो सकते हैं; आकर्षण को ही प्रेम समझने कि नादानी उनके जीवन को अंधकारमय बना सकती है! उन्हें आयु के उस सर्वधिक संवेदनशील मोड़ पर क्या दिशा दे रहें हैं, हम लोग? जिस लोकतंत्र ने आधुनिकाओं को अपने ढंग से जीने का अधिकार दिया है, उसी लोकतंत्र ने इस देश की संस्कृति व परम्पराओं के दिवानो को उस कि रक्षा के लिये विरोध करने का अधिकार भी दिया है! माना उन्हें जबरदस्ती का अधिकार नहीं है तो तुम्हे समाज के बीच नैतिक, मान्यताओं, मूल्यों को खंडित करने का अधिकार किसने दिया? किसी की आस्था व भावनायों को ठेस पहुंचाने की आजादी, कौन सा सात्विक कार्य है?
गाँधी दर्शन- जिस गाँधी को इस देश की आजादी का पूरा श्रेय देकर व जिसके नाम से 60 वर्षों से उसके कथित वारिस इस देश का सता सुख भोग रहें है, उसकी बात तो मानेगे! उसने स्पष्ट कहा था 'आपको ऊपर से ठीक दिखने वाली इस दलील के भुलावे में नहीं आना चाहिय कि शराब बंदी जोर जबरदस्ती के आधार पर नहीं होनी चाहिये; और जो लोग शराब पीना चाहते हैं, उन्हें इसकी सुविधा मिलनी ही चाहिये! हम वैश्याल्यो को अपना व्यवसाय चलाने की अनुमति नहीं देते! इसी तरह हम चोरो को अपनी चोरी की प्रवृति पूरी करने की सुविधाए नहीं देते! मैं शराब को चोरी ओर व्यभिचार दोनों से ज्यादा निन्दनीय मानता हूँ!'
   जब इस बुराई को रोकने का प्रयास किया गया तो हाथापाई होने पर जैसी प्रतिक्रिया दिखाई जा रही है, वैसी उस बुराई को रोकने में क्यों नहीं दिखाई गयी! इस बुराई को रोकने का प्रयास करने पर आज गाँधी को भी ये आधुनिकतावादी इसी आधार पर प्रतिगामी, प्रतिक्रियावादी व फासिस्ट घोषित कर देते?
   इस मदिरापान से विश्व मैं मार्ग दुर्घटनाएँ होती हैं! मदिरापान का दुष्परिनाम तो महिलाओं को ही सर्वाधिक झेलना पड़ता है! इसी कारण महिलाएं इन दुकानों का प्रबल विरोध भी करती हैं! किन्तु जब प्रतिरोध भारतीय संस्कृति के समर्थको ने किया है तो उसमें गतिरोध पैदा करने की संकुचित व विकृत मानसिकता, हमे अपसंस्कृति व अनुचित के पक्ष में खड़ा कर, अनिष्ट की आशंका खड़ी करती है ??
समस्या व परिणाम- किन्तु हमारे प्रगतिशील, आधुनिकता के पाश्चात्यानुगामी गोरो की काली संताने अपने काले कर्मो को घर की चारदीवारी में नहीं पशुवत बीच सड़क करने के हठ को, क्यों अपना अधिकार समझते हैं? पूरे प्रकरण को हाथापाई के अपराध पर केन्द्रित कर, हिन्दू विरोधी प्रलाप करने वाले, क्यों सभ्य समाज में सामाजिक व नैतिक मूल्यों की धज्जियाँ उड़ाने व अपसंस्कृति फैलाने के मंसूबों का समर्थन करने में संकोच नहीं करते ? फिर उनके साथ में मंगलूर जैसी घटना होने पर सभी कथित मानवतावादी उनके समर्थन में हिन्दुत्व को गाली देकर क्या यही प्रमाण देना चाहते हैं: कि १) भारत में आजादी का पश्चात मैकाले के सपनो को पहले से भी तीर्वता से पूरा किया जा सकता है?
   २) जिस संस्कृति को सहस्त्र वर्ष के अन्धकार युग में भी शत्रुओ द्वारा नहीं मिटाया जा सका व आजादी के संघर्ष में प्रेरण हेतु देश के दीवाने गाते थे "यूनान मिश्र रोमा सब मिट गए जहाँ से, कुछ बात है कि अब तब बाकि निशान हमारा", आजाद भारत में उसके इस गौरव को खंडित करने व उसे ही दुर्लक्ष्य करने की आजादी, इस देश के शत्रुओं को उपलब्ध हो? क्या लोकतंत्र, समानता, सहिष्णुता के नाम पर ये छूट हमारी अस्मिता से खिलवार नहीं??
   केवल सता में बने रहना या सीमा की अधूरी,अनिश्चित सुरक्षा ही राष्ट्रिय अस्मिता नहीं है! जिस देश की संस्कृति नष्ट हो जाती है, रोम व यूनान की भांति मिट जाता है! हमारी तो सीमायें भी देश के शत्रुओं के लिये खुली क्यों हैं? हमारे देश के कुछ भागो पर ३ पडोसी देश अपना अधिकार कैसे समझते हैं? वहां से कुछ लोग कैसे हमारी छाती पर प्रहार कर चले जाते हैं? हम चिल्लाते रह जाते हैं?   देश की संस्कृति मूल्यों मान्यताओ सहित इतिहास को तोड मरोड कर हमारे गौरव को धवंस्त किया जाता है! सरकार की ओर से उसे बचाने का कोई प्रयास नहीं किया जाता! क्योंकि हम धर्म निरपक्ष है? फिर, कोई और बचाने का प्रयास करे तो उसे कानून हाथ में लेने का अपराध माना जाता है? इस देश के मूल्यों आदर्शो की रक्षा न करेंगे न करने देंगे? फिर भी हम कहते हैं कि सब धर्मावलम्बीयों को अपने धर्म का पालन करने, उसकी रक्षा करनें का अधिकार है, अपनी बात कहने का अधिकार है? कैसा कानून कैसा अधिकार व कैसी ये सरकार? 
  जरा सोचे- व्यवहार में देखे तो भारत व भारतीयता के उन तत्वों को दुर्लक्ष किया जाता है, जिनका संबध भारतीय संस्कृति, आदर्शो, मूल्यों व परम्पराओं से है! क्योंकि वे हिंदुत्व या सनातन परम्परा से जुड़े हैं? उसके बारे में भ्रम फैलाना, अपमानित व तिरस्कृत करना, हमारा सेकुलर सिद्ध अधिकार है?
   इस अधिकार का पालन हर स्तर पर होना ही चाहिये? किन्तु उन मूल्यों की स्पर्धा में जो भी आए उसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने दिया जायेगा? हिन्दू हो तो, इस सब को सहन भी करो और असहिष्णु भी कहलाओ? सहस्त्र वर्ष के अंधकार में भी संस्कारो की रक्षा करने में सफल विश्व गुरु, दिन निकला तो एक शतक भी नहीं लगा पाया और मिट गया ! अगली पीडी की वसीयत यही लिखेंगे हम लोग?
   इस विडंबना व विलक्षण तंत्र के कारण हम संस्कृतिविहीन व अपसंस्कृति के अभिशप्त चेहरे को दर्पण में निहारे तो कैसे पहचानेगे? क्या परिचय होगा हमारा?..
  तिलक राज रेलन संपादक युग दर्पण (9911111611), (9540007993).
घर 4 दीवारी से नहीं 4 जनों से बनता है, परिवार उनके प्रेम और तालमेल से बनता है! आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक

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